Sunday, June 11, 2017

श्री स्वर्णाकर्षण भैरवस्तोत्र


स्वर्ण भैरव कालभैरव का ही रूप है जिन की पूजा स्वर्ण प्राप्ति दरिदता नाश करने के लिए की जाती है इन के इस रूप के बारे में नंन्दी ने मुनि मार्कण्ड़े को बताया था।

श्री स्वर्णाकर्षण भैरवस्तोत्र

विनियोग - ॐ अस्य श्रीस्वर्णाकर्षणभैरव महामंत्रस्य श्री महाभैरव ब्रह्मा ऋषिः , त्रिष्टुप्छन्दः , त्रिमूर्तिरूपी भगवान स्वर्णाकर्षणभैरवो देवता, ह्रीं बीजं , सः शक्तिः, वं कीलकं मम् दारिद्रय नाशार्थे विपुल धनराशिं स्वर्णं च प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगः।

(अब बाए हाथ मे जल लेकर दहिने हाथ के उंगलियों को जल से स्पर्श करके मंत्र मे दिये हुए शरिर के स्थानो पर स्पर्श करे।)

ऋष्यादिन्यासः
श्री महाभैरव ब्रह्म ऋषये नमः शिरसि।
त्रिष्टुप छ्न्दसे नमः मुखे।
श्री त्रिमूर्तिरूपी भगवानस्वर्णाकर्षण भैरव देवतायै नमः ह्रदिः।
ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये।
सः शक्तये नमः पादयोः।
वं कीलकाय नमः नाभौ।
मम् दारिद्रय नाशार्थे विपुल धनराशिंस्वर्णं च प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगाय नमःसर्वांगे।

(मंत्र बोलते हुए दोनो हाथ के उंगलियों को आग्या चक्र पर स्पर्श करे।)
(अंगुष्ठ का मंत्र बोलते समय दोनो अंगुष्ठ से आग्या चक्र पर स्पर्श करना है।)

करन्यासः
ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ऐं तर्जनीभ्यां नमः।
क्लां ह्रां मध्याभ्यांनमः।
क्लीं ह्रीं अनामिकाभ्यां नमः।
क्लूं ह्रूं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
सं वं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

(अब मंत्र बोलते हुए दाहिने हाथ से मंत्र मे कहे गये शरिर के भाग पर स्पर्श करना है।)

हृदयादि न्यासः
आपदुद्धारणाय हृदयाय नमः।
अजामल वधाय शिरसे स्वाहा।
लोकेश्वराय शिखायै वषट्।
स्वर्णाकर्षण भैरवाय कवचाय हुम्।
मम् दारिद्र्य विद्वेषणाय नेत्रत्रयाय वौषट्।श्रीमहाभैरवाय नमः अस्त्राय फट्।
रं रं रं ज्वलत्प्रकाशाय नमः

इतिदिग्बन्धः।
(अब दोनो हाथ जोड़कर ध्यान करे।ध्यान मंत्र का उच्चारणकरें। जिसका हिन्दी में सरलार्थ नीचे दिया गया है। वैसा ही आप भाव करें।)

ॐ पीतवर्णं चतुर्बाहुं त्रिनेत्रं पीतवाससम्।
अक्षयं स्वर्णमाणिक्य तड़ित-पूरितपात्रकम्॥
अभिलसन् महाशूलं चामरं तोमरोद्वहम्।
सततं चिन्तये देवं भैरवं सर्वसिद्धिदम्॥
मंदारद्रुमकल्पमूलमहिते माणिक्य सिंहासने, संविष्टोदरभिन्न चम्पकरुचा देव्या समालिंगितः।
भक्तेभ्यः कररत्नपात्रभरितं स्वर्णददानो भृशं, स्वर्णाकर्षण भैरवो विजयते स्वर्णाकृति : सर्वदा॥

(हिन्दी भावार्थ: श्रीस्वर्णाकर्षण भैरव जी मंदार(सफेद आक) के नीचे माणिक्य के सिंहासन पर बैठे हैं।
उनके वाम भाग में देवि उनसे समालिंगित हैं।उनकी देह आभा पीली है तथा उन्होंने पीले ही वस्त्र धारण किये हैं। उनके तीन नेत्र हैं। चार बाहु हैं जिन्में उन्होंने स्वर्ण — माणिक्य से भरे हुए पात्र, महाशूल, चामर तथा तोमर को धारण कर रखा है। वे अपने भक्तों को स्वर्ण देने के लिए तत्पर हैं।
ऐसे सर्वसिद्धिप्रदाता श्री स्वर्णाकर्षण भैरवका मैं अपने हृदय में ध्यान व आह्वान करता हूं उनकी शरण ग्रहण करता हूं। आप मेरे दारिद्रय का नाश कर मुझे अक्षय अचलधन समृद्धि और स्वर्ण राशि प्रदान करे और मुझ पर अपनी कृपा वृष्टि करें।)

(मानसोपचार पुजन के मंत्रो को मन मे बोलना है।)

मानसोपचार पूजन:लं पृथिव्यात्मने गंधतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं गंधं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम:।
हं आकाशात्मने शब्दतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं पुष्पं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम:।
यं वायव्यात्मने स्पर्शतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं धूपं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम:।
रं वह्न्यात्मने रूपतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं दीपं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम:।
वं अमृतात्मने रसतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं अमृतमहानैवेद्यं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम:।
सं सर्वात्मने ताम्बूलादि सर्वोपचारान् पूजां श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम:।

*मंत्र :-

ॐ ऐं क्लां क्लीं क्लूं ह्रां ह्रीं ह्रूं स: वं आपदुद्धारणाय अजामलवधाय लोकेश्वराय स्वर्णाकर्षण भैरवाय मम् दारिद्रय विद्वेषणाय ॐ ह्रीं महाभैरवाय नम:।*




(मंत्र जाप के बाद स्तोत्र का एक पाठ अवश्य करे।)

*श्री स्वर्णाकर्षण भैरवस्तोत्र।*

श्री मार्कण्डेय उवाच 

।।भगवन् ! प्रमथाधीश ! शिव-तुल्य-पराक्रम !पूर्वमुक्तस्त्वया मन्त्रं, भैरवस्य महात्मनः।।

इदानीं श्रोतुमिच्छामि,तस्य स्तोत्रमनुत्तमं ।तत् केनोक्तं पुरा स्तोत्रं, पठनात्तस्य किं फलम् ।।

तत् सर्वं श्रोतुमिच्छामि, ब्रूहिमे नन्दिकेश्वर।।

श्री नन्दिकेश्वर उवाच ।।

इदं ब्रह्मन् ! महा-भाग, लोकानामुपकारक !स्तोत्रं वटुक-नाथस्य, दुर्लभं भुवन-त्रये ।।

सर्व-पाप-प्रशमनं, सर्व-सम्पत्ति-दायकम् ।दारिद्र्य-शमनं पुंसामापदा-भय-हारकम् ।।

अष्टैश्वर्य-प्रदं नृणां, पराजय-विनाशनम् ।महा-कान्ति-प्रदं चैव, सोम-सौन्दर्य-दायकम् ।।

महा-कीर्ति-प्रदं स्तोत्रं, भैरवस्य महात्मनः ।न वक्तव्यं निराचारे, हि पुत्राय च सर्वथा ।।

शुचये गुरु-भक्ताय, शुचयेऽपि तपस्विने ।महा-भैरव-भक्ताय, सेविते निर्धनाय च ।।

निज-भक्ताय वक्तव्यमन्यथा शापमाप्नुयात् ।स्तोत्रमेतत् भैरवस्य, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मनः।।

श्रृणुष्व ब्रूहितो ब्रह्मन् ! सर्व-काम-प्रदायकम् ।


विनियोगः- 
ॐ अस्य श्रीस्वर्णाकर्षण-भैरव-स्तोत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः,
अनुष्टुप् छन्दः, श्रीस्वर्णाकर्षण-भैरव-देवता, ह्रीं बीजं,
 क्लीं शक्ति, सः कीलकम्, मम-सर्व-काम-सिद्धयर्थे पाठे विनियोगः।


ध्यानः-
मन्दार-द्रुम-मूल-भाजि विजिते रत्नासने संस्थिते ।दिव्यं चारुण-चञ्चुकाधर-रुचा देव्या कृतालिंगनः।।

भक्तेभ्यः कर-रत्न-पात्र-भरितं स्वर्ण दधानो भृशम् ।

स्वर्णाकर्षण-भैरवो भवतु मे स्वर्गापवर्ग-प्रदः।।

*।। स्तोत्र-पाठ ।।*

ॐ नमस्तेऽस्तु भैरवाय, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मने,नमः त्रैलोक्य-वन्द्याय, वरदाय परात्मने ।।

रत्न-सिंहासनस्थाय, दिव्याभरण-शोभिने ।नमस्तेऽनेक-हस्ताय, ह्यनेक-शिरसे नमः ।

नमस्तेऽनेक-नेत्राय, ह्यनेक-विभवे नमः ।।

नमस्तेऽनेक-कण्ठाय, ह्यनेकान्ताय ते नमः।

नमोस्त्वनेकैश्वर्याय, ह्यनेक-दिव्य-तेजसे ।।

अनेकायुध-युक्ताय, ह्यनेक-सुर-सेविने ।अनेक-गुण-युक्ताय, महा-देवाय ते नमः ।।

नमो दारिद्रय-कालाय, महा-सम्पत्-प्रदायिने ।श्रीभैरवी-प्रयुक्ताय, त्रिलोकेशाय ते नमः ।।

दिगम्बर ! नमस्तुभ्यं, दिगीशाय नमो नमः ।नमोऽस्तु दैत्य-कालाय, पाप-कालाय ते नमः ।।

सर्वज्ञाय नमस्तुभ्यं, नमस्ते दिव्य-चक्षुषे ।अजिताय नमस्तुभ्यं, जितामित्राय ते नमः ।।

नमस्ते रुद्र-पुत्राय, गण-नाथाय ते नमः ।नमस्ते वीर-वीराय, महा-वीराय ते नमः ।।

नमोऽस्त्वनन्त-वीर्याय, महा-घोराय ते नमः ।नमस्ते घोर-घोराय, विश्व-घोराय ते नमः ।।

नमः उग्राय शान्ताय, भक्तेभ्यः शान्ति-दायिने ।गुरवे सर्व-लोकानां, नमःप्रणव-रुपिणे ।।

नमस्ते वाग्-भवाख्याय, दीर्घ-कामाय ते नमः ।नमस्ते काम-राजाय, योषित्कामाय ते नमः ।।

दीर्घ-माया-स्वरुपाय, महा-माया-पते नमः ।सृष्टि-माया-स्वरुपाय, विसर्गाय सम्यायिने ।।

रुद्र-लोकेश-पूज्याय, ह्यापदुद्धारणाय च ।नमोऽजामल-बद्धाय, सुवर्णाकर्षणाय ते ।।

नमो नमो भैरवाय, महा-दारिद्रय-नाशिने ।उन्मूलन-कर्मठाय, ह्यलक्ष्म्या सर्वदा नमः ।।

नमो लोक-त्रेशाय, स्वानन्द-निहिताय ते ।नमः श्रीबीज-रुपाय, सर्व-काम-प्रदायिने ।।

नमो महा-भैरवाय, श्रीरुपाय नमो नमः ।धनाध्यक्ष ! नमस्तुभ्यं, शरण्याय नमो नमः ।।

नमः प्रसन्न-रुपाय, ह्यादि-देवाय ते नमः ।नमस्ते मन्त्र-रुपाय, नमस्ते रत्न-रुपिणे ।।

नमस्ते स्वर्ण-रुपाय, सुवर्णाय नमो नमः ।नमः सुवर्ण-वर्णाय, महा-पुण्याय ते नमः ।।

नमः शुद्धाय बुद्धाय, नमः संसार-तारिणे ।नमो देवाय गुह्याय, प्रबलाय नमो नमः ।।

नमस्ते बल-रुपाय, परेषांबल-नाशिने ।नमस्ते स्वर्ग-संस्थाय, नमो भूर्लोक-वासिने ।।

नमः पाताल-वासाय, निराधाराय ते नमः ।नमो नमः स्वतन्त्राय, ह्यनन्ताय नमो नमः ।।

द्वि-भुजाय नमस्तुभ्यं, भुज-त्रय-सुशोभिने ।नमोऽणिमादि-सिद्धाय, स्वर्ण-हस्ताय ते नमः ।।

पूर्ण-चन्द्र-प्रतीकाश-वदनाम्भोज-शोभिने ।नमस्ते स्वर्ण-रुपाय, स्वर्णालंकार-शोभिने ।।

नमः स्वर्णाकर्षणाय, स्वर्णाभाय च ते नमः ।नमस्ते स्वर्ण-कण्ठाय, स्वर्णालंकार-धारिणे ।।

स्वर्ण-सिंहासनस्थाय, स्वर्ण-पादाय ते नमः ।नमः स्वर्णाभ-पाराय, स्वर्ण-काञ्ची-सुशोभिने।।

नमस्ते स्वर्ण-जंघाय, भक्त-काम-दुघात्मने ।नमस्ते स्वर्ण-भक्तानां, कल्प-वृक्ष-स्वरुपिणे।।

चिन्तामणि-स्वरुपाय, नमो ब्रह्मादि-सेविने ।कल्पद्रुमाधः-संस्थाय, बहु-स्वर्ण-प्रदायिने।।

भय-कालाय भक्तेभ्यः, सर्वाभीष्ट-प्रदायिने ।नमो हेमादि-कर्षाय, भैरवाय नमो नमः ।।

स्तवेनानेन सन्तुष्टो, भव लोकेश-भैरव !पश्य मां करुणाविष्ट, शरणागत-वत्सल !श्रीभैरव धनाध्यक्ष, शरणं त्वां भजाम्यहम् ।प्रसीद सकलान् कामान्, प्रयच्छ मम सर्वदा ।।


फल-श्रुति

श्रीमहा-भैरवस्येदं, स्तोत्र सूक्तं सु-दुर्लभम् ।मन्त्रात्मकं महा-पुण्यं, सर्वैश्वर्य-प्रदायकम्।।

यः पठेन्नित्यमेकाग्रं,पातकैः स विमुच्यते ।लभते चामला-लक्ष्मीमष्टैश्वर्यमवाप्नुयात्।।

चिन्तामणिमवाप्नोति, धेनुं कल्पतरुं ध्रुवम्।स्वर्ण-राशिमवाप्नोति, सिद्धिमेव स मानवः ।।

संध्याय यः पठेत्स्तोत्र, दशावृत्त्या नरोत्तमैः ।स्वप्ने श्रीभैरवस्तस्य, साक्षाद् भूतो जगद्-गुरुः ।स्वर्ण-राशि ददात्येव, तत्क्षणान्नास्ति संशयः ।सर्वदा यः पठेत् स्तोत्रं, भैरवस्य महात्मनः ।।

लोक-त्रयं वशी कुर्यात्,अचलां श्रियं चाप्नुयात् ।न भयं लभते क्वापि, विघ्न-भूतादि-सम्भव।।

म्रियन्ते शत्रवोऽवश्यम लक्ष्मी-नाशमाप्नुयात् ।अक्षयं लभते सौख्यं, सर्वदा मानवोत्तमः ।।

अष्ट-पञ्चाशताणढ्यो, मन्त्र-राजः प्रकीर्तितः ।दारिद्र्य-दुःख-शमनं, स्वर्णाकर्षण-कारकः ।।

य येन संजपेत् धीमान्, स्तोत्र वा प्रपठेत् सदा ।महा-भैरव-सायुज्यं, स्वान्त-काले भवेद् ध्रुवं ।

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🙏🏻साधना विधि:-सर्वप्रथम रात्री मे 11 बजे स्नान करके उत्तर दिशा मे मुख करके साधना मे बैठे।पिले वस्त्र-आसन होना जरुरी है। स्फटिक माला और यंत्र को पिले वस्त्र पर रखे और उनका सामान्य पुजन करे। साधना सिर्फ मंगलवार के दिन रात्री मे 11 से 3 बजे के समय मे करना है। इसमे 11 माला मंत्र जाप करना आवश्यक है। भोग मे मिठे गुड का रोटी चढाने का विधान है और दुसरे दिन सुबह वह रोटी किसी काले रंग के कुत्ते को खिलाये,काला कुत्ता ना मिले तो किसी भी कुत्ते को खिला दिजीये।

Wednesday, June 7, 2017

पारायण कसे करावे? (नवनाथ भक्तिसार)


पारायण कसे करावे?



श्री नवनाथ भक्तिसार या ग्रंथात एकूण चाळीस अध्याय आहेत. या ग्रंथाचे पारायण नऊ दिवसात पूर्ण करावे. काही साधक या पद्धतीने पारायण न करता रोज ५ ते १०० ओव्या वाचतात. काहीजण रोज एक अध्याय वाचतात. तर काही जण ठराविकच एक अध्याय रोज वाचतात, कारण यातील प्रत्येक अध्याय एका विशिष्य फलप्राप्तीसाठी आहे.

पूर्ण श्रद्धेने व भक्तीभावाने, तसेच नाथांना शरण जाऊन केलेल पारायणाचे दिव्य अनुभव निश्चित येतात

पारायणाची पूर्वतयारी



'श्री नवनाथ भक्तिसार' ह्या ग्रंथाचे पारायण सुरू करण्यापूर्वी फुले, हार, तुळशी, सुगंधी उदबत्ती, धूप, कलश, विड्याची पाने, सुपाऱ्या, नैवेद्यासाठी पेढे इ. तसेच अष्टगंध, शक्य तर हीना अत्तरच, रांगोळी, नारळ इ. गोष्टी तयार ठेवाव्यात. नंतर शुद्धोदकाने स्नान करून भस्मलेपन करावे. कलश स्थापन करावा. देवापुढे विड्याची पाने, सुपारी व दक्षिणा ठेवावी, तसेच नयनमनोहर सुंदर रांगोळी काढावी, समई लावावी. (ही समई म्हणजेच नंदादीप, सातही दिवस अखंड तेवत ठेवावी.) नंतर कलशाची पूजा करून पुरुषांनी शक्यतर संध्या करून १०८ वेळा गायत्री जप करावा.

एवढे झाल्यावर श्रीगणेश, श्रीकुलदैवत, आपले सद्‌गुरू त्याचप्रमाणे वडील मंडळींना साष्टांग वंदन करून त्यांचे शुभाशीर्वाद घ्यावे.

नवनाथ पारायणासाठी सोवळे-ओवळ्याचे फारसे नियम नाहीत. शुभ्र धूत वस्त्र परिधान करून पारायण केले तरी चालते.

असो. या ग्रंथाचे पारायण शुभ दिवशी, शुभ नक्षत्रावरच शक्यतो सुरू करावे. (रोहिणी, उत्तरा, अश्विनी, पुष्, हस्त, मृग, चित्रा, अनुराधा व रेवती ही शुभ नक्षत्रे आहेत. आणि गुरुवार व शुक्रवार हे शुभ दिवस मानले जातात.

या नंतर उजव्या तळहातावर उदक (पाणी) घेऊन संकल्पाचा उच्चार करणे आवश्यक आहे. कोणतेही धार्मिक कृत्य करण्यापूर्वी फलप्राप्तीसाठी संकल्पाचा उच्चार करणे आवश्यक असते. परंतु पुष्कळ लोकांना ही गोष्ट ठाऊक नसते. त्यामुळे फलाची प्राप्ती होत नाही.

हा संकल्प पुढीलप्राणे उच्चारावा-


श्रीमम्नगणाधिपतये नम:। मातृपितृभ्यो नम:। इष्टदेवताभ्यो नम:। कुलदेवताभ्यो नम:। ग्रामदेवताभ्यो नम:। स्थानदेवताभ्यो नम:। सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम:।सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम:। एतत्कर्मप्रधान देवताभ्यो नम: ।ॐ तत्सत् श्रीमद् भगवते महापुरुषस्य विष्णूराज्ञ् या ।प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणो परार्धे विष्णुपदे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगचतुष्के कलियूगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतवर्षे भरतखण्डे दक्षिणतीरे शालिवाहन शके... नाम संवत्सरे... अयने... ऋतो... मासे... पक्षे... तिथौ... वासरे... दिवस... नक्षत्रे.... योगे... करणे... राशिस्थिते वर्तमानचंद्रे... राशिस्थिते... श्रीसूर्ये... राशिस्थिते श्रीदेवगुरौ शेषु ग्रहेषु यथायथं राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्तिथौ मम आत्मन: सकलशास्त्र पुराणोक्त फलप्राप्त्यर्थ असमाकं सहकुटुंबानं सपरिवाराणां द्विपद चतुष्पद सहितानां क्षेमस्थैर्यायुरारोग्यैश्र्वर्यांभीवृद्यर्थ समस्ताभ्यूद्यार्थं चं श्रीनवनाथ भक्तिसार ग्रंथस्य पारायणं करिष्ये तदंगत्वेन पुस्तकरूपी श्रीनवनाथ पूजनं च करिष्ये । आसनादि कलश, शंख, घंटा, दीपपूजनं च करिष्ये। (असे म्हणून हातातील उदक ताम्हनात सोडावे. नंतर संकल्पात म्हटल्याप्रमाणे आसन, न्यास, कलशपूजा तसेच शंख, घंटा, दीप यांची पूजा करून श्रीनवनाथ पोथीचीही प्रेभावाने भक्तीपूर्वक पूजा करावी व पोथी वाचनास प्रारंभ करावा.

दुसऱ्यासाठी करावाचा संकल्प

काही वेळा हे पारायण दुसऱ्यासाठी करण्याची वेळ येते. उदाहरणार्थ, एखादी व्यक्ती आजारी असेल किंवा फार मोठ्या संकटात सापडली असेल तर तिला स्वतःला हे पारायण करणे शक्य नसते. अशावेळी ते त्या व्यक्तीसाठी दुसऱ्या कुणाला करावे लागते. अशावेळी संकल्पाचा उच्चार कसा करावा असा प्रश्न कुणाला पडेल. त्यासाठी पुढीलप्रमाणे संकल्प सोडावा.

'अमुक गोत्रात्पन्ने, अमुक शर्मणा वृत्तोऽहं (स्त्री असेल तर अमुक नाम्ना वृत्तोऽहं) यजमानस्य (स्त्री असेल तर यजमान्याया) श्रीनवनाथ देवता प्रीतिद्वारा इष्ट कामना सिद्ध्यर्थं श्रीनवनाथ भक्तिसारग्रंथ पारायणं करिष्ये' इ.

मात्र, संकल्पाचा स्पष्ट उच्चार केल्याशिवाय पारायण किंवा अन्य कोणतेही धार्मिक कृत्य केव्हाहेी करू नये. कारण त्याचे इष्टफल मिळत नाही असा शास्त्रार्थ आहे. अगदी निष्काम भावनेने पारायण करावाचे असेल तेव्हाही 'श्रीनवनाथ देवता प्रीत्यर्थ' किंवा 'श्रीनवनाथ देवता कृपाप्रार्प्त्थं' असे म्हणावे. दुसरे महत्वाचे सांगावाचे म्हणजे, हे वाचन कधीही मनात करू नये, ते मोठ्यानेच करावे. त्यायोगे घरातील वातावरण शुद्ध बनते. बाधा किंवा पीडा दूर पळतात. (फक्त मंत्रजप मनात करावा.)


पारायणकाळात कसे वागावे?

पारायणकाळात कडकडीत ब्रह्मचर्य पाळावे. सत्य बोलावे व संपूर्ण दिवस श्रीदत्त व नवनाथ यांचे स्मरण करीत आनंदात घालवावा. वाचलेल्या भागातील नाथांचच्या लीलांचे स्मरण, चिंतन करावे. या काळात शक्यतर जास्तीत जास्त वेळ मौनच पाळावे.

रोजचे वाचन झाल्यावर श्रीगणेश, श्रीशिव, श्रीदेवी, श्रीदत्त व श्रीनवनाथ यांच्या खड्या आवाजात आरत्या म्हणाव्यात, तसेच त्यांची निवडक स्तोत्रे सुंदर चालीत म्हणावीत.

रोज किती अध्याय वाचावेत?

पारायणकाळात रोज किती अध्याय वाचावेत या विषयी मतभेद आहेत. परंतु सर्वसाधारणतः पुढील प्रकारे वाचन केल्यास एकाच दिवशी जास्त वाचन करण्याचा ताण पडत नाही.

पहिल्या दिवशी १ ते ६ अध्याय

दुसऱ्या दिवशी ७ ते १२ अध्याय

तिसऱ्या दिवशी १३ ते १८ अध्याय

चौथ्या दिवशी १९ ते २४ अध्याय

पाचव्या दिवशी २५ ते ३० अध्याय

सहाव्या दिवशी ३१ ते ३६ अध्याय

सातव्या दिवशी ३७ ते ४० अध्याय

रोजच्या वाचनानंतर आरती, प्रसादाबरोबरच शक्यतो देवापुढे धूप जाळावा. धूपामुळे दैवत जागृत राहते. तसेच धूपाच्या सुवासामुळे आपले मनही प्रसन्न राहण्यास मदत होते. देवाला हीना अत्तरही लावायला विसरू नये.

पारायण पूर्ण झाल्यावर शिव किंवा दत्तात्रेय यांना अभिषेक करावा. तसेच ब्राह्मण व सुवासिनी (मेहूण) यांना भोजन, विडा व दक्षिणा देऊन तृप्त करावे.


स्त्रियांनी पारायण करावे का?

'श्री नवनाथ भक्तिसार' ग्रंथाचे पारायण स्त्रियांनी करावे का? असा प्रश्न पुष्कळदा विचारला जातो. याचे कारण, श्रीगुरुचरित्र हा ग्रंथ स्त्रियांनी वाचू नये अशी स्पष्ट आज्ञा प्रसिद्ध दत्तावतार श्रीवासुदेवानंद सरस्वती ऊर्फ टेंबेस्वामी महाराज यांनी आपल्या 'स्त्रीशिक्षा' या ग्रंथात दिली आहे. याचे कारण या ग्रंथात वेदाक्षरे आलेली आहेत, असे ते सांगतात.

परंतु 'श्रीनवनाथ भक्तिसार' या ग्रंथात कुठेही वेदाक्षरे नसल्यामुळे हा ग्रंथ पुरुषांप्रमाणेच स्त्रियांनीही वाचण्यास काहीच हरकत नाही. त्यायोगे त्यांचा निश्चितच फायदा झाल्याशिवाय राहणार नाही.

पारायणकाळात कोणते नियम पाळावेत?

'श्री नवनाथ भक्तिसार' या ग्रंथाचे पारायण करताना पाठकाने काही महत्वाच्या नियमांचे काटेकोरपणे पालन करणे आवश्यक आहे, तरच त्याला पारायणाचे अनुभव येतील. हे नियम पुढीलप्रमाणेः

१) वाचन स्नानोत्तर, अंगाला भस्मलेपन करूनच करावे. भस्म कपाळावर, दोन्ही दंडांवर, हृदयावर व गुडघ्यांना लावावे व ते लावताना भस्मलेपनाचा मंत्र अथवा केवळ 'ॐ नमः शिवाय' एवढेच म्हणावे.

२) वाचन मनात न करता स्वतःला ऐकू जाईल इतक्या मोठ्या आवाजात करावे. यायोगे ध्वनिकंपने निर्माण होऊन वातावरण- शुद्ध होते.

३) रोजचे वाचन संपेपर्यंत मध्ये काहीही बोलू नये,

४) वाचन पूर्ण एकाग्रतेने व्हावे. तो तो कथा प्रसंग डोळ्यापुढे उभा राहणे आवश्यक आहे,

५) सात दिवसांतच वाचन संपवावे, व या काळात देवापुढे अखण्ड नंदादीप तेवत ठेवावा.

६) या काळात (खरे तर नेहमीच!) सात्विकच अन्न सेवन करावे,

७) तसेच कडक ब्रह्मचर्य (कायिक, वाचिक व मानसिक) पाळावे,

८) या काळात 'ॐ चैतन्य गोरक्षनाथाय नमः' या मंत्राचा जमेल तितका जप करावा.

९) पारायणकाळात बाहेरचे काहीही खाऊ-पिऊ नये. (खरे तर साधकाने हा नियम नेहमीच पाळावा!),

१०) या काळात अतत्त्वार्थ भाषण-शिव किंवा दत्त यांची स्तोत्रे म्हणावीत.

१२) रोजचे वाचन संपल्यावर नाथांची मानसपूजा करावी.

१३) काहींच्या मते पारायणकाळात नेहमीप्रमाणे पोथी बासनात बांधून ठेवू नये. झालेल्या अध्यायापर्यंत उघडीच ठेवावी.

१४) शक्यतो पूर्व वा पश्चिम दिशेस तोंड करून बसावे.

१५) या सात दिवसांत शक्यतो जमिनीवर चटई वा कांबळे टाकून डाव्याच कुशीवर झोपावे,

१६) पारायण संपल्यावर पोथीची पूजा करावी व सांगतेच्या दिवशी भोजनात भाजणीच्या पिठाचे वडे करावेत.

तसे नियम सांगायचे तर पुष्कळ आहेत, परंतु त्यातील अगदी महत्वाचे तेवढे येथे दिले आहेत.

साधकांनी आणखी एक महत्वाची गोष्ट लक्षात ठेवावी, ती अशी की, प्रत्येक पारायण केल्यावर काही दिव्य अनुभव येतीलच असे नाही. अनुभव येणे न येणे हे तुमचे मन व शरीर किती प्रमाणात शुद्ध झाले आहे व तुम्ही किती भक्तिभावाने व तळमळीने पारायण केले यावर अवलंबून आहे. सुरवातीची काही किंवा बरीच पारायणे मन व शरीर शुद्ध होण्यातच खर्ची पडतात, तर कित्येकदा तुमची वास्तू शुद्ध नसेल तर ती शुद्ध होण्यासाठी खर्ची पडतात. साधकांनी या गोष्टी नीट लक्षात ठेवून अनुभव येण्याची घाई करू नये. पारायण करावेसे वाटणे हा देखील एक अनुभवच आहे! कारण तशी बुद्धी देखील त्या दैवताच्या इच्छेशिवाय व कृपेशिवाय निर्माण होतच नाही!!

कित्येक श्रीमंत लोक घरात ब्राह्मणाकडून पारायणे करून घेतात. काहींच्या घरात ब्राह्मणांकडून वर्षभर 'सप्तशती' चे पाठ सुरू असतात. अर्थात त्याचाही त्यांना फायदा होतो. फक्त अशा पाठांच्या वेळी तो श्रवण करण्याचे पथ्य त्यांनी अवश्य पाळावे. नाहीतर इकडे ब्राह्मण पाठ करतो आहे आणि शेठजी टी.व्ही. वरील फिल्मी गीतांची मजा लुटताहेत असे होऊ नये!

पारायणकाळात काय खावे?

पारायणकाळात अर्थातच शुद्ध व सात्त्विक अन्न घ्यावे हे वेगळे सांगायला नकोच. या काळात कांदा, लसूण पूर्ण वर्ज्य आहे. तसेच, 'अधिकस्य अधिकं फलं' या न्यायाने या काळात सोवळ्यात केलेला स्वयंपाक सर्वात उत्तम. तसेच, बाहेरचे सर्व पदार्थ वर्ज्य. बाहेर पाणीदेखील न घेणे उत्तम! (हे नियम खर्‍या साधकाने खरे तर कायमच पाळावेत. तथापि, ते न जमले तर निदान पारायणकाळात तरी अवश्य पाळावेत.) खरे तर शरीराला एका विशिष्य पद्धतीने राहण्याचे 'वळण लागावे' यासाठी देखील अधूनमधून पारायणे करावयाची असतात!

असो. काहीजण या काळात हविष्यान्न खाऊन राहतात. कारण हे अन्न सर्वांत सात्त्विक समजले आहे.

'धर्मसिंधु' या सर्वमान्य ग्रंथात पुढील पदार्थांचा हविष्यान्न म्हणून उल्लेख आहे- साळीचे तांदूळ, जव, मूग, तीळ, राळे, वाटाणे इ. धान्ये. पांढरा मुळा, सुरण इ. कंद, सैंधव व समुद्रोत्पन्न अशी लवणे, गाईचे दूध, दही व तूप. तसेच फणस, आंबा, नारळ, केळे, रायआवळे ही फळे, त्याचप्रमाणे जिरे, सुंठ व साखर, काहींच्या मते, दूधभात, साखर गव्हाची पोळी, तूप चालेल. मीठ, तिखट, आंबट नको. गूळही नको.

अर्थात ज्यांना हे पाळणे शक्य आहे अशांसाठीच ही माहिती येथे दिली आहे. ज्यांना एवढे काटेकोर नियम पाळता येणार नाहीत अशांनी पारायणकाळात शुद्ध सात्त्विक अन्न घेण्यास हरकत नाही.

पोथीबाबत काही नियम

असो. आता 'श्रीनवनाथ भक्तिसार' ह्या पोथीचे पारायण करू इच्छिणार्‍या पाठकांना या पोथीच्या संदर्भात काही सूचना अवश्य या द्याव्याशा वाटतात. त्या अशा-

१) ही पोथी एक अत्यंत पवित्र वस्तू समजून ती शक्यतो रेशमी कापडात बांधून पवित्र जागी ठेवावी.

२) पोथीचे पारायण करताना पाने उलटण्यासाठी बोटाला थुंकी लावून पाने कधीही उलटू नयेत. (हा नियम अन्य ग्रंथांची पाने उलटतानाही खरे तर अवश्य पाळावा.)

३) रोजचे पारायण संपल्यावर पोथीवर फूल वाहण्यास विसरू नये. तत्पूर्वी पोथी कपाळी लावून तिला नम्रभावाने वंदन करावे.

४) आरती झाल्यावर पोथी वरूनही नीरांजन ओवाळावे व उदबत्ती दाखवावी.

५) पोथीच्या रूपात नाथांचेच वास्तव्य घरात आहे असे समजून तिची काळजीपूर्वक जपणूक करावी.

आचारः प्रथमो धर्मः

शरीर व मन:शुद्धीच्या संदर्भात :

आमचा हिंदुधर्म हा आचारप्रधान आहे. 'आचारः प्रथमो धर्मः' हे वाक्य सर्वांच्या परिचयाचेच आहे. हा आचार शरीराच्या व मनाच्या शुद्धीसाठी अत्यंत आवश्यक आहे. मन:शुद्धी ही शरीरशुद्धीवर अवलंबून आहे व शरीरशुद्धीसाठी अन्नशुद्धी महत्वाची आहे. 'आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः' असे शास्त्रवचन आहे. परंतु शुद्धी म्हणजे केवळ स्वच्छता नव्हे हे विसरता कामा नये. या शुद्धीत स्वच्छतेबरोबरच पवित्रता अपेक्षित आहे. साबणाने शरीर स्वच्छ होईल परंतु पवित्र होणार नाही. खर्‍या पवित्रतेसाठी आचार, विचार, उच्चार व आहार शुद्ध ठेवणे आवश्यक आहे, व यासाठी प्राणायाम, उपासना व शुद्ध सात्त्विक आहार या गोष्टी महत्वाच्या आहेत. यायोगे प्राण व मानसद्रव्याची शुद्धी झाली तर ज्ञानेश्वरीच्या ६ व्या अध्यायात म्हटल्याप्रमाणे शरीरातील पंचभूतांपैकी पृथ्वी व आप या तत्त्वांचे अंश कमी होतात व शरीर हलके होऊन योग्याला आकाशगमनादी सिद्धी प्राप्त होते.

याच ठिकाणी साधकांनी, 'देवतानां तु सान्निध्यं अर्चकस्य तपोबलात्‌' हे शास्त्रवचनही लक्षात ठेवले पाहिजे. म्हणजे, अर्चकाच्या तपोबलावर प्रतिमेत देवतांचे सान्निध्य अवलंबून असते. यासाठीच देवदेवतांची कृपा व सान्निध्य हवे असेल तर साधकाने अंतर्बाह्य शुचित्व पाळले पाहिजे. आमच्या धर्मशास्त्रात परान्न न घेणे, त्याचप्रमाणे सोवळे-ओवळे पाळणे इ. नियम याच दूरदृष्टीने सांगितलेले आहेत. परंतु त्यांनाच आम्ही सांप्रत 'अंधश्रद्धा' म्हणू लागलो आहोत यापेक्षा दुर्दैवाची गोष्ट ती कोणती?

पारायण सात दिवसांचेच का?

पुष्कळ लोक असा प्रश्न विचारतात की, 'श्रीगुरुचरित्र' किंवा 'श्रीनवनाथ भक्तिसार' या ग्रंथांचे पारायण सात दिवसांतच का करावे? आम्ही रोज थोड्या ओव्या वाचल्या तर चालणार नाही का?

या प्रश्नाचे उत्तर असे की, रोज थोड्या ओव्या वाचण्यात गैर काहीच नाही. 'अकरणात मंद करणं श्रेयाः' ही म्हण प्रसिद्धच आहे. परंतु सात दिवसांच्या पारायणाचे महत्व काही वेगळेच आहे. ते एक दिवसाच्या किंवा तीन दिवसांच्या पारायणाला येणे शक्य नाही.

या संदर्भात तासगावचे (कै.) रा. वि. कुलकर्णी ऊर्फ 'आनंदघनराम' यांनी दिलेले उत्तर लक्षात ठेवण्यासारखे आहे.*

ते लिहितात- 'नुसत्या पारायणापेक्षा सप्ताहाच्या अनुष्ठानात काही विशिष्य हेतू असतात. १) 'संकल्प कर्मनिश्चयः' याप्रमाणे कार्यपूर्तीला आपला मनोनिश्चय मदत करतो. हा इतका निश्चय नुसत्या पारायणात असत नाही. २) सप्ताहात जो व्रतस्थपणा असतो, तो नित्याच्या पारायणात कोणी पाळीत नसतात. व्रतस्थपणे राहिल्याने एक प्रकारची शक्ती उत्पन्न होते. ३) सप्ताहात बहुधा दिवसाचा सर्व वेळ त्यातच खर्ची पडतो. तसा नित्याच्या पारायणात फारच थोडावेळ त्या कार्यात व बाकीचा आपल्या संसारात जातो... (तसेच वार सात आहेत, वर्ण म्हणजे प्रकाशवर्ण (रंग) हेही सातच आहेत, व्याहृती सातच आहेत, पाताळे सात व स्वर्गही सात आहेत...)'

-श्रीआनंदघनराम यांनी केलेला हा खुलासा कुणालाही पटण्यासारखाच आहे. यासाठीच एक किंवा तीन दिवसांचे पारायण केवळ नाइलाज किंवा वेळेअभावी करण्यास हरकत नाही. तथापि अशा पारायणात खरे तर मनाची एकाग्रता नीट सांभाळता येत नाही. कारण शरीराला तशी सवय नसते. (त्यामुळे एक दिवसाचे पारायण करताना शरीराला ताण येतो व काही वेळा तर केव्हा हे पारायण संपते असा विचारही मनात येऊन जातो!) यासाठीच सप्ताह पद्धतीने वाचन करणे हाच उत्तम मार्ग होय.

दिव्य अनुभव कधी येतील?

'श्रीगुरुचरित्र' किंवा 'श्रीनवनाथ भक्तिसार' अशासारख्या ग्रंथांची भक्तिभावाने पारायणे करणार्‍या साधकांना काही वेळा अनेक दिव्य अनुभव आल्याचे दाखले आहेत. यामध्ये नवनाथांचे किंवा एखाद्या नाथांचे दर्शन होणे, त्यांच्याकडून काही संदेश मिळणे किंवा पारायण काही विशिष्य हेतूने केलेले असेल तर त्या संदर्भात काही सूचना मिळणे, याचप्रमाणे वृत्ती पूर्ण आनंदमय होणे, सुवास येणे, स्वर्गीय नाद ऐकू येणे इथपासून 'आदेश' किंवा 'अलख्‌'यासारखे शब्द ऐकू येणे इ, अनेकानेक अनुभवांचा उल्लेख करावा लागेल. प्रस्तुत लेखकाला यापैकी बरेच अनुभव आलेले आहेत. तथापि, असे आध्यात्मिक अनुभव दुसर्‍याला सांगू नयेत असा दण्डक असल्याने त्याबद्दल जास्त काही लिहिता येत नाही. (फक्त असे अनुभव निश्चितपणे येतात व अनुभव येतात ही कपोलकल्पित कथा नव्हे, हे ठामपणे सांगण्यासाठीच अनुभव आल्याचे सांगितले आहे.


मानसपूजा कशी करावी?

'श्री नवनाथ' पोथीचे आपले रोजचे पारायण पूर्ण झाल्यावर त्याच आसनावर डोळे बंद करून बसावे व डोळ्यापुढे कोणत्याही एका (आपल्या जास्त आवडणार्‍या) नाथांची मूर्ती आणावी. मात्र ही मूर्ती दगडी नसावी तर जिवंत स्वरूपातील असावी. त्यानंतर त्यांना नम्रभावाने मनानेच वंदन करून आपण एरवी करतो तशीच पूजा परंतु मनाने करण्यास सुरुवात करावी. पूजेचे सर्व उपचार मनानेच करावयाचे असल्याने पूजेसाठी सोन्या-चांदीची उपकरणे किंवा रत्नजडीत समयाही सहजपणे वापरता येतील! ही पूजा सुरू असताना 'ॐ चैतन्य गोरक्षनाथाय नमः' किंवा 'ॐ चैतन्य जालंदरनाथाय नमः' इ. कोणताही मंत्र (आपल्या आवडीनुसार) सतत मनामध्ये सुरू असावा. त्यामुळे चित्त अन्यत्र जात नाही व एकाग्रता साधण्यास मदत होते.

या पूजेच्या वेळी नाथांना शुद्धोदकाने स्नान घालावे, भस्म आणि गंध लावावे. गळ्यात हात घालावा, मस्तकावर व पायांवर फुले वाहावीत. उदबत्ती लावावी, धूप दाखवावा आणि विनम्रभावाने वंदन करावे. नंतर नैवेद्य दाखवून त्यांची आरती करावी. त्यांच्या पायावर डोके ठेवून त्यांची कृपा होण्यासाठी प्रार्थना करावी. (इतरही काही मागणे असल्यास ते मागावे) हे सर्व झाल्यावर ती पूजा मनानेच विसर्जित करावी व डोळे उघडावेत.

मानसपूजा दैवताच्या जवळ लवकर नेते. त्यामुळे तिचे महत्त्व विशेष आहे. या मानसपूजेला वेळही कमी लागतो व ती कोणत्याही साधनांशिवाय व कुठेही करता येते.

शुद्ध आचरणाची गरज

तथापि, नाथांच्याकृपेसाठी व प्रसन्नतेसाठी केवळ ऐवढेच करून भागणार नाही. पारायणकर्त्याने आपले नेहमीचे दैनंदिन आचरणही शुद्ध व अत्यंत निर्मळ ठेवले पाहिजे. त्याचे आहारावर काटेकोर नियंत्रण असले पाहिजे. खर्‍या साधकाने शक्यतो बाहेरचे (परान्न) खाऊच नये हे उत्तम. कारण त्या अन्नावर कोणते संस्कार झालेले असतील हे सांगता येत नाही. परंतु आजकाल बाहेरचे आयतेच पदार्थ घरी आणून खाण्याची तरुण-तरुणींना एक चटकच लागली आहे. ज्यांना साधना करून काही प्राप्त करून घ्यावयाचे आहे त्यांनी तरी काही नियम हे कटाक्षाने पाळायलाच हवेत. त्याशिवाय त्यांना साधनेतले दिव्य अनुभव प्राप्त होणे कदापिही शक्य नाही!

साधकाने दुसर्‍याला लुबाडणे, फसविणे, या गोष्टीही टाळायलाच हव्यात. 'आम्ही एवढी पारायणे केलीत परंतु आम्हाला दैवी दृष्टांत एकदाही झाला नाही' अशी वारंवार तक्रार करणार्‍या पाठकांनी थोडे अंतर्मुख होऊन आले काय चुकते आहे याचा शोध कठोरपणे घ्यायला हवा आणि मगच दृष्टान्त वगैरेची अपेक्षा करायला हवी!


अनुभव का येतात?

असो. आता हे अनुभव कुणाला येतील व ते का येतात त्याबद्दल माहिती पाहू.

हे अशाप्रकारचे दिव्य अनुभव अर्थातच पूर्वी सांगितल्याप्रमाणे शरीर व मनाची शुद्धी झाल्यावरच येतील यात शंका नाही. तोपर्यंतची पारायणे या गोष्टींच्या पूर्ततेसाठीच होतील. यासाठीच, पाठकांनी अनुभवांची घाई करू नये. फळ पक्क झाल्यावर झाडावरून आपोआप गळणारच आहे, अगदी त्याचप्रमाणे शरीर व मन एका विशिष्य पातळीपर्यंत शुद्ध झाल्यानंतर दिव्य अनुभव न मागताही आपोआप येणार आहेत!

अर्थात, त्यासाठी आणखीही काही नियम पाठकांनी पाळणे आवश्यक आहे.

पहिला महत्वाचा नियम म्हणजे वाचन पूर्ण एकाग्रतेने व्हायला हवे. ही एकाग्रता इतकी असावी की, कथाप्रसंगाशी पूर्ण एकरूप झाल्यामुळे तो तो प्रसंग प्रत्यक्ष डोळ्यासमोर घडतो आहे असे वाटले पाहिजे. दुसरा महत्वाचा नियम म्हणजे हे वाचन पूर्ण भक्तिभावाने व्हायला हवे. हे दोन नियम फार महत्वाचे आहेत. वरवर पाहता ते सोपे वाटले तरी ते अमलात येणे फार अवघड आहे!

पारायण्याचे दिव्य अनुभव

'श्रीनवनाथ भक्तिसार' या ग्रंथाच्या पारायणाचे साधकांना अनेकदा दिव्य अनुभव येतात. ही पारायणे सकाम व निष्काम अशा दोन्ही पद्धतीने केली जातात. मात्र खर्‍या साधकाने ती निष्काम भावनेने करणेच अधिक योग्य ठरेल. ती तशी केल्यास अनेकदा स्वप्नात नाथांचे दर्शन घडते आणि मन आनंदी व शांत बनून साधक कृतकृत्य होतो!

प्रस्तुत लेखकाने अशा निष्काम भावनेने या ग्रथांची कितीतरी पारायणे आजवर केली असून थोडा आत्मस्तुतीचा दोष पत्करून एकच अनुभव सांगावासा वाटतो.

१९६९ साली सदर पोथीचे निष्काम भावनेने एक पारायण केल्यानंतर एक दिवस पहाटेच्या सुमारास प्रस्तुत लेखकाला स्वप्नामध्ये दोघा नाथांचे दर्शन घडले. त्यापैकी एक नाथ उंचीने कमी होते, तर दुसरे त्यांच्यापेक्षा बरेच उंच होते. हे बहुधा मच्छिंद्रनाथ व गोरक्षनाथच असावेत. नंतर त्यापैकी जे उंच होते त्यांनी प्रस्तुत लेखकाला खाली बसविले व त्याच्या टाळूवर फुंकर मारली आणि दुसर्‍याच क्षणी दोघेही अदृश्य झाले. हा काही अनुग्रहाचाच प्रकार असावा असे प्रस्तुत लेखकाला वाटते व त्याबद्दल तो स्वतःला भाग्यवान समजतो. (विशेष म्हणजे या घटनेनंतर एका आठवड्यात पूज्य श्री गुळवणीमहाराजांकडून प्रस्तुत लेखकाला शक्तिपात दीक्षा प्राप्त झाली.)

असो, सकाम भावनेने या ग्रंथाची पारायणे केल्यासही असेच आश्चर्यकारक अनुभव येतात हे सुरवातीला सांगितलेच. विशेषतः या ग्रंथांतील २८ व्या अध्यायच्या नित्य पारायणामुळे अनेक अविवाहित तरुण-तरुणींचे विवाह जमल्याची अनेक उदाहरणे आहेत. त्यांचे विवाह जमण्यात बरेच अडथळे येत होते. परंतु रोज न चुकता पूर्ण श्रद्धेने या अध्यायाचे एक पारायण सुरू केल्यानंतर एक महिना ते एक वर्ष या मुदतीत त्यांचे विवाह झाले!

'श्रीनवनाथ भक्तिसार' या ग्रंथाच्या चाळीसाव्या अध्यायात त्यातील प्रत्येक आध्याय कोणत्या कार्यासाठी वाचावा याची माहिती दिलेली आहे. त्यामध्ये २८ व्या अध्यायाविषयी लिहिताना मालू कवी म्हणतात-

'अठ्ठाविसाव्या अध्यायात।पिंगले करिता स्मशानात। विरक्त होऊनि भर्तरीनाथ। पूर्ण तप आचरला । तो अध्याय करिता श्रवण पठण। त्या भाविकांचे होईल लग्न। कांता लाभेल गुणवान। सदा रत सेवेसी॥'

अर्थात या अध्यायाच्या पठणामुळे मुलांना जशी गुणवान कांता मिळते त्याचप्रमाणे मुलींनाही गुणवान पती लाभतो यात मुळीच संशय नाही. प्रस्तुत लेखकाच्या संग्रही या उपासनेमुळे विवाह जमल्याची अनेक उदाहरणे आहेत.

अठ्ठाविसाव्या अध्यायाप्रमाणेच या ग्रंथांच्या ५ व्या अध्यायाचे घरात नित्य पठण केल्यास घरातील बाधा किंवा पिशाच्चपीडा दूर होते यात मुळीच संशय नाही. मध्यंतरी एके ठिकाणी असे वाचण्यात आले की ज्यांच्या पत्रिकेत कालसर्पयोग आहे अशांनीही हा अध्याय रोज वाचल्यास हा दोष कालांतराने दूर होतो. इतर अध्यायांच्या पठणाचेही ४० व्या अध्यायात सांगितलेल्या फलश्रुतीनुसार फारच आश्चर्यकारक अनुभव येताना दिसतात.

एक दिवस परगावच्या एका वकिलांचे प्रस्तुत लेखकास एक पत्र आले. त्या पत्रात त्यांनी लिहिले होते की, 'दोन वर्षांपूर्वी माझा व्यवसाय फार उत्तम प्रकारे चालला होता व महिन्याकाठी मला भरपूर पैसे मिळत होते. परंतु गेल्या दोन वर्षांपासून माझी नेहमीची गिर्‍हाईकेही माझ्याकडे न येता माझ्या समोरच्या वकिलांकडे जातात. हे असेच चालू राहिले तर लवकरच व्यवसाय बंद करून पोटासाठी कुठेतरी नोकरी पत्करण्याशिवाय गत्यंतर राहणार नाही. तरी आपण यावर काही उपाय सुचवू शकाल का?'

त्या पत्रावर प्रस्तुत लेखकाने त्यांना असे कळविले की, 'तुम्ही फक्त श्रीनवनाथ भक्तीसार पोथीची सतत पारायणे आपल्या घरात चालू ठेवा. एक दिवस तुम्हाला याचा आपोआप उलगडा होईल व तुमचा त्रासही दूर होईल.'

त्यानुसार त्यांनी 'श्रीनवनाथ भक्तिसार' या ग्रंथाची पारायणे मोठ्या भक्तिभावाने सुरू केली.


अध्याय वाचतानाची फलश्रुती

बहुतेक पोथीग्रंथात अखेरच्या अध्यायात प्रत्येक अध्यायाच्या वाचनाची फलश्रुती दिलेली आढळते. तशी ती 'श्रीनवनाथ भक्तिसार' ग्रंथातही अखेरच्या म्हणजे चाळीसाव्या अध्यायात दिलेली आहे.

आपण ती थोडक्यात पाहू-

अध्याय पहिला - याच्या नित्य वाचनाने वा केवळ श्रवणानेही घरातील समंध बाधा त्रासून निघून जाते.

अध्याय दुसरा - अपार धनाची प्राप्ती

अध्याय तिसरा - शत्रूंचा नाश

अध्याय चौथा - कपट, कारस्थाने बंद पडून शत्रूचा नाश होईल व निरंतर शांती लाभेल.

अध्याय पाचवा - घरात पिशाच्चसंचार होणार नाही. ती घरात असतील तर त्रासून निघून जातील.

अध्याय सहावा - शत्रूच्या मनातील कपट दूर होऊन तो सेवक बनेल.

अध्याय सातवा - चिंता-व्यथा दूर होऊन जखीणीचे भय असल्यास तेही दूर होईल. (यासाठी या अध्यायाचे त्रिकाल वाचन करून एक मंडळ (४२ दिवस) पूर्ण करावे.)

अध्याय आठवा - परदेशी गेलेला मित्र (प्रियकर) परत येऊन भेटेल व चिंता व व्यथा दूर होईल.

अध्याय नववा - चौदा विद्यांचे ज्ञान होईल.

अध्याय दहावा - याचे अनुष्ठान केले असता स्त्रियांचे विकार दूर होऊन संतती वाढेल.

अध्याय अकरावा - अग्निपिडा दूर होईल व गृहपीडा (दोष) दूर होऊन संतती व संपत्ती प्राप्त होईल.

अध्याय बारावा - देवतांचा क्षोभ दूर होऊन त्या सुख देतील.

अध्याय तेरावा - स्त्रीहत्येचा दोष नाहीसा होऊन पूर्वजांचा उद्धार होईल.

अध्याय चौदावा - कारागृहातून मुक्तता होईल.

अध्याय पंधरावा - घरची-बाहेरची भांडणे बंद होऊन सुख, शांती लाभेल.

अध्याय सोळावा - दुःस्वप्नांचा नाश होईल.

अध्याय सतरावा - योगमार्गात प्रगती होईल व दुष्टबुद्धी नष्ट होऊन पाठक सन्मार्गाला लागेल.

अध्याय अठरावा - ब्रह्महत्येचे पातक नष्ट होऊन पूर्वजांची नरकातून मुक्तता होईल.

अध्याय एकोणिसावा - मोक्षप्राप्ती होईल.

अध्याय विसावा - वेड दूर होईल, प्रपंच सुखाचा होईल

अध्याय एकविसावा - गोहत्येचे पातक दूर होऊन (मृत्युनंतर) तपोलोकाची प्राप्ती होईल.

अध्याय बाविसावा - पुत्राची इच्छा असणार्‍यास पुत्र होईल व तो विद्यावंत होऊन विद्‌वज्जनात मान्यता प्राप्त करेल.

अध्याय तेविसावा - घरात विपुल सुवर्ण राहिल.

अध्याय चोविसावा - बालहत्येचा दोष दूर होऊन वांझ स्त्रियांना पुत्रप्राप्ती होऊन तो पुत्र सुखात नांदेल.

अध्याय पंचविसावा - दुसर्‍याचे शाप बाधणार नाहीत. मानवाशिवाय अन्य जन्म मिळणार नाही. तसेच आरोग्य लाभून पतिव्रता स्त्रीची प्राप्ती होईल व गुणी पुत्राचा लाभ होईल.

अध्याय सव्विसावा - कुलात कुणाची हत्या झाली असेल तर तो दोष नाहिसा होईल. मुले शत्रुत्वाने वागणार नाहीत.

अध्याय सत्ताविसावा - स्थानभ्रष्ट झालेल्यांना आपले स्थान पुन्हा प्राप्त होईल. हरवलेली वस्तू सापडेल.

अध्याय अठ्ठाविसावा - पाठकाचा विवाह होईल व त्याला सेवाभावी व गुणवान धर्मपत्नी मिळेल.

अध्याय एकोणतिसावा - क्षयरोग दूर होऊन त्रिताप नष्ट होतील.

अध्याय तिसावा - चोराच्या दृष्टीला बंधन पडेल. (म्हणजेच चोरांपासून भय राहणार नाही)

अध्याय एकतिसावा - कुणाचेही कपटमंत्र चालणार नाहीत.

अध्याय बत्तिसावा - गंडांतरे आपोआप टळतील.

अध्याय तेहतिसावा - धनुर्वात होणार नाही व झाला असल्यास त्याची पीडा दूर होईल.

अध्याय चौतिसावा - कोणत्याही कार्यात यश मिळेल.

अध्याय पस्तिसावा - पोटी महासिद्धाचा जन्म होईल व त्याच्या योगे बेचाळीस पिढ्यांचा उद्धार होऊन लोक त्याची स्तुती करतील.

अध्याय छत्तिसावा - सर्प किंवा विंचू चावला असल्यास त्याचे विष बाधणार नाही.

अध्याय सदतिसावा - पाठक विद्यावंत होईल, तसेच घराण्याला लागलेला डाग नष्ट होईल.

अध्याय अडतिसावा - हिवताप, नवज्वर यासारखे ताप दूर होतील.

अध्याय एकोणचाळीसावा - युद्धात जय प्राप्त होईल.

अध्याय चाळीसावा - यश श्री ऐश्वर्य पुत्र-पौत्र इ. सर्व गोष्टी प्राप्त होतील.


This information is taken from TEMBE SWAMI MAHARAJ group, written by


Dhananjay Deshmukh